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Sunday, October 13, 2013

गठरी



कितनी भारी है यह गठरी
कर्तव्यों और दायित्वों की ! 

प्राण प्रण से
अपनी सामर्थ्य भर
दोनों हाथों से 
इसे अब तक
सम्हाले रही हूँ ! 

लेकिन लगता है
आयु के साथ-साथ
अब क्षमताएं चुक गयी हैं,
शक्ति घट गयी है
और जिजीविषा थक चली है !

मेरी हथेलियों की पकड़
ढीली हो चली है
और जतन से सम्हाली
यह गठरी मेरे
हाथों से धीरे-धीरे
अब सरकने लगी है !

दर्द से टीसती उंगलियों को
चकमा दे
नीचे गिरने को तैयार
इस गठरी को
पूरे जी जान से
मैं कलेजे से लगाये
बचाने के लिये
भरसक प्रयत्नशील हूँ!

लेकिन लगता है
सब कुछ हाथों से 
छूट चला है
और मेरी हर कोशिश
नाकाम हो चली है ! 

तुम्हारी बहुत ज़रूरत
महसूस हो रही है !
तुम होते तो
शायद मेरा यह बोझ
कुछ हल्का हो जाता !

साधना वैद

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